पढ़े ढेरों काका हाथरसी की हास्य व्यंग्य बाण
18 सितम्बर 1906 को उत्तर प्रदेश के हाथरस में जन्मे काका हाथरसी को कौन नहीं जानता। इनका असली नाम "प्रभुलाल गर्ग" था जो बाद में व्यंग्य कवि काका हाथरसी के नाम से प्रचलित हुआ व्यंग्य लेखन में उनकी हर विषयों पर पैनी नज़र होती थी। और वो हर छोटी से छोटी अव्यवस्थाओं को भी बड़ी बारीकी से पकड़ लेते थे , और उसके बाद उन्ही छोटी से छोटी अव्यवस्थाओं पर गहरे कटाक्ष के साथ अपनी रचनाओं को लिखते थे। और प्रस्तुत करते थे।
व्यंग्य से भरी रचनाओं का सिर्फ और सिर्फ एक ही मूल उद्देश्य होता था मनोरंजन के साथ समाज में व्याप्त दोषों, कुरीतियों, भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुशासन की ओर ध्यान आकृष्ट करना है। ताकि लोग समाज में फैले इन व्याप्त दोषों, कुरीतियों का समर्थन ना कर के रोकने का प्रयास करे।
तो चलिए आज के इस ब्लॉग में पढ़ते हैं काका हाथरसी द्वारा लिखे कुछ मजेदार व्यंग्य और उनकी हास्य रचना ।
हिंदी की हो रही दुर्दशा पर काका हाथरसी यह रचना
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बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा- बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा कहँ ‘ काका ' , जो ऐश कर रहे रजधानी में नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में पुत्र छदम्मीलाल से, बोले श्री मनहूस हिंदी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूस जाओ बेटे रूस, भली आई आज़ादी इंग्लिश रानी हुई हिंद में, हिंदी बाँदी कहँ ‘ काका ' कविराय, ध्येय को भेजो लानत अवसरवादी बनो, स्वार्थ की करो वक़ालत |
मुर्ग़ी के कमरे में कुर्सी
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नेता अखरोट से बोले किसमिस लाल हुज़ूर हल कीजिये मेरा एक सवाल मेरा एक सवाल, समझ में बात न भरती मुर्ग़ी अंडे के ऊपर क्यों बैठा करती नेता ने कहा, प्रबंध शीघ्र ही करवा देंगे मुर्ग़ी के कमरे में एक कुर्सी डलवा देंगे |
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा - पर काका हाथरसी यह रचना
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सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा हम भेड़-बकरी इसके यह गड़ेरिया हमारा सत्ता की खुमारी में, आज़ादी सो रही है हड़ताल क्यों है इसकी पड़ताल हो रही है लेकर के कर्ज़ खाओ यह फर्ज़ है तुम्हारा सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा. चोरों व घूसखोरों पर नोट बरसते हैं ईमान के मुसाफिर राशन को तरशते हैं वोटर से वोट लेकर वे कर गए किनारा सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा. जब अंतरात्मा का मिलता है हुक्म काका तब राष्ट्रीय पूँजी पर वे डालते हैं डाका इनकम बहुत ही कम है होता नहीं गुज़ारा सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा. हिन्दी के भक्त हैं हम, जनता को यह जताते लेकिन सुपुत्र अपना कांवेंट में पढ़ाते बन जाएगा कलक्टर देगा हमें सहारा सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा. फ़िल्मों पे फिदा लड़के, फैशन पे फिदा लड़की मज़बूर मम्मी-पापा, पॉकिट में भारी कड़की बॉबी को देखा जबसे बाबू हुए अवारा सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा. जेवर उड़ा के बेटा, मुम्बई को भागता है ज़ीरो है किंतु खुद को हीरो से नापता है स्टूडियो में घुसने पर गोरखा ने मारा सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा. |
महँगाई से हो गया, जीवन डाँवाडोल पर काका हाथरसी यह रचना
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जन-गण मन के देवता, अब तो आँखें खोल महँगाई से हो गया, जीवन डाँवाडोल जीवन डाँवाडोल, ख़बर लो शीघ्र कृपालू कलाकंद के भाव बिक रहे बैंगन-आलू कहँ ‘काका’ कवि, दूध-दही को तरसे बच्चे आठ रुपये के किलो टमाटर, वह भी कच्चे। राशन की दुकान पर, देख भयंकर भीर ‘क्यू’ में धक्का मारकर, पहुँच गये बलवीर पहुँच गये बलवीर, ले लिया नंबर पहिला खड़े रह गये निर्बल, बूढ़े, बच्चे, महिला कहँ ‘काका’ कवि, करके बंद धरम का काँटा लाला बोले-भागो, खत्म हो गया आटा। |
कव्वाल-धमधूसर पर काका हाथरसी यह रचना
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मेरठ में हमको मिले धमधूसर कव्वाल तरबूजे सी खोपड़ी, ख़रबूजे से गाल ख़रबूजे से गाल, देह हाथी सी पाई लंबाई से ज़्यादा थी उनकी चौड़ाई बस से उतरे, इक्कों के अड्डे तक आये दर्शन कर घोड़ों ने आँसू टपकाये रिक्शे वाले डर गये, डील-डौल को देख हिम्मत कर आगे बढ़ा, ताँगे वाला एक ताँगे वाला एक, चार रुपये मैं लूँगा दो फ़ेरी कर, हुज़ूर को पहुँचा दूँगा। |
कोतवाल बन जाये तो , हो जाये कल्यान पर काका हाथरसी यह रचना
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पड़ा - पड़ा क्या कर रहा, रे मूरख नादान दर्पण रख कर सामने , निज स्वरूप पहचान निज स्वरूप पह्चान , नुमाइश मेले वाले झुक - झुक करें सलाम , खोमचे - ठेले वाले कहँ ‘ काका ' कवि , सब्ज़ी - मेवा और इमरती चरना चाहे मुफ़्त , पुलिस में हो जा भरती कोतवाल बन जाये तो , हो जाये कल्यान मानव की तो क्या चले , डर जाये भगवान डर जाये भगवान , बनाओ मूँछे ऐसीं इँठी हुईं , जनरल अयूब रखते हैं जैसीं कहँ ‘ काका ', जिस समय करोगे धारण वर्दी ख़ुद आ जाये ऐंठ - अकड़ - सख़्ती - बेदर्दी शान - मान - व्यक्तित्व का करना चाहो विकास गाली देने का करो , नित नियमित अभ्यास नित नियमित अभ्यास , कंठ को कड़क बनाओ बेगुनाह को चोर , चोर को शाह बताओ ‘ काका ', सीखो रंग - ढंग पीने - खाने के ‘ रिश्वत लेना पाप ' लिखा बाहर थाने के |
पिल्लै का राज़ पर काका हाथरसी यह रचना
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पिल्ला बैठा कार में, मानुष ढोवें बोझ भेद न इसका मिल सका, बहुत लगाई खोज बहुत लगाई खोज, रोज साबुन से न्हाता देवी जी के हाथ, दूध रोटी खाता कहं ‘काका’ कवि, मांगत हूं वर चिल्ला-चिल्ला पुनर्जन्म में प्रभो. बनाना हमको पिल्ला। |
Surender Sharma | Click Hear |