राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी – Ram Prasad Bismil Biography In Hindi
दोस्तों आज के आर्टिकल (Biography) में जानते हैं, स्वाधीनता इतिहास के महान क्रांतिकारियों में से एक, भारत की आज़ादी के लिये मात्र 30 साल की उम्र में अपने प्राणों की आहुति देने वाले अमर शहीद क्रांतिकारी “राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी” (Ram Prasad Bismil Biography) के बारे में.
एक झलक Ram Prasad Bismil की जीवनी पर :
Ram Prasad Bismil भारत के स्वाधीनता इतिहास में महान क्रांतिकारियों में एक थे. जिन्होंने मात्रभूमि की आज़ादी के लिए मात्र 30 साल की उम्र में अपने प्राणों की आहुति दे दी. जिन्होंने ‘मैनपुरी कांड’ और ‘काकोरी कांड’ को सफलता पूर्वक अंजाम देकर अंग्रेजी हुकूमत की नीव हिला के रख दी.
राम प्रसाद बिस्मिल क्रन्तिकारी ही नहीं, बल्कि उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाविद् व साहित्यकार भी थे. अपने 11 वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में कई पुस्तकों को लिखा और उसका प्रकाशन भी कराया. लेकिन उनकी सभी पुस्तको को अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया और उसे जब्त कर लिया.
प्रारंभिक जीवन :
Ram Prasad Bismil जी का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले में 11 जून 1897 को हुआ. इनके पिता जी का नाम मुरलीधर था और माता जी का नाम मूलमती था.
शिक्षा :
सात वर्ष की उम्र से ही घर में शिक्षा उनकी प्रारम्भ हो गयी थी. घर में उनकी माता जी ही उन्हें पढ़ाती थी. राम प्रसाद जी के पिता जी हमेशा उनकी शिक्षा का ध्यान देते थे उन्हें उर्दू की शिक्षा के लिए भी एक मौलवी साहब के पास भेजा जाता था.
कक्षा आठ तक हमेशा वे प्रथम श्रेणी में पास हुए. लेकिन अधिक मौज मस्ती के कारण उर्दू मिडिल परीक्षा में वह लगातार दो साल तक फेल हुए. लगातार दो बार फेल होने के कारण उनका मन पढाई से हटने लगा. तब उन्होंने अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा हुयी पर अंग्रेजी पढ़ाने के पक्ष में उनके पिता जी नहीं थे लेकिन राम प्रसाद जी की माता मूलमती के कहने पर मान गए.
कक्षा आठ तक हमेशा वे प्रथम श्रेणी में पास हुए. लेकिन अधिक मौज मस्ती के कारण उर्दू मिडिल परीक्षा में वह लगातार दो साल तक फेल हुए. लगातार दो बार फेल होने के कारण उनका मन पढाई से हटने लगा. तब उन्होंने अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा हुयी पर अंग्रेजी पढ़ाने के पक्ष में उनके पिता जी नहीं थे लेकिन राम प्रसाद जी की माता मूलमती के कहने पर मान गए.
जीवन में बदलाव :
रामप्रसाद जी नवी की पढाई के बाद आर्य समाज के सम्पर्क में आये जिसके कारण उनके जीवन एक नया परिवर्तन आया. जब शाहजहाँपुर में स्थित आर्य समाज मंदिर में स्वामी सोमदेव जी से उनकी मुलाकात हुयी.
जब वे 18 साल के थे. तब उन्होंने एक खबर पढ़ी कि भारत की आज़ादी के लिए भाई परमानन्द जी को अंग्रेजी हुकूमत ने "ग़दर षड्यंत्र" में शामिल होने के जुर्म में उन्हें फांसी की सजा दे दी लेकिन बाद में इस फांसी को आजीवन कारावास में बदल दिया गया और उसके बाद सन 1920 में उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया.
कविता "मेरा जन्म" :
इस खबर को पढ़ कर अन्दर से रामप्रसाद जी विचलित से हो उठे और उसके बाद उन्होंने "मेरा जन्म" नामक एक कविता लिखी और उसके बाद इस कविता को स्वामी सोमदेव जी को दिखाया. इस कविता को पढ़ कर स्वामी सोमदेव जी बस एक तक उन्हें देखते रह गए. इस कविता की एक एक लाइन में अंग्रेजी हुकुमत से मुक्ति दिलाने की प्रतिबद्धिता नज़र आ रही थी.
कांग्रेस लखनऊ अधिवेशन :
उसी दौरान लखनऊ में सन् 1916 में कांग्रेस द्वारा अधिवेशन किया गया. इस अधिवेशन के दौरान बालगंगाधर तिलक ने कांग्रेस के नरम दल के विरोध के बावजूद भी पुरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाल भ्रमण किया. इसी दौरान केशव बलिराम हेडगेवार, सोमदेव शर्मा व मुकुन्दीलाल आदि नेताओं से उनकी मुलाकात भी हुयी.
- इन्हें भी पढ़े :
- मंगल पाण्डेय की जीवनी
- चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनी
- खुदीराम बोस की जीवनी
इन युवकों का मत था कि देश की तत्कालीन दुर्दशा के एकमात्र कारण अंग्रेज़ ही हैं इन सभी के विचारो को सुन कर Ram Prasad Bismil काफी प्रभावित हुए और उन्हें यही से क्रन्तिकारी जीवन में प्रवेश कर के देश की आज़ादी में अपना योगदान देने का सही मार्ग मिला.
क्रन्तिकारी संगठन की सदस्यता :
साथ ही उन्हें यह भी पता चला की क्रांतिकारियों की एक गुप्त समिति भी है, जहा से अंग्रेजो के खिलाफ़ आन्दोलनों को चलाया जाता हैं. तब उनके मन में भी इस समिति का सदस्य बनने की इच्छा हुयी,
और कुछ ही दिनों में अपने एक मित्र के सहयोग से इस संगठन से जुड़ गए और समिति के कार्यो में अपना योगदान देने लगे. और कुछ ही दिनों में समिति की कार्यकारिणी के सदस्य बन गए. और इसी के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में और सक्रिय हो गए. और अपने शहर शाहजहाँपुर आ गए और यही से उन्होंने संगठन को मजबूत बनाने के लिए कार्य किया.
क्रन्तिकारी संगठन की स्थापना :
अंग्रेजी हुकूमत से डट कर सामना करने के लिए और देश को अंग्रेजो से आज़ाद कराने के उदेश्य से "मातृदेवी" नाम से एक संगठन की स्थापना की. इसी संगठन की स्थापना के बाद स्वामी सोमदेव ने रामप्रसाद की मदद के लिए उनकी मुलाकात औरैया के पंडित गेंदा लाल दीक्षित से करायी इस उदेश्य के साथ की की रामप्रसाद जी के साथ कोई अनुभवी व्यक्ति का साथ हो . क्युकि पंडित गेंदा लाल दीक्षित जी पहले से ही "शिवाजी समिति" नाम की एक क्रन्तिकारी संगठन की स्थापना की थी. और उसी के माध्यम से अंग्रेजो के खिलाफ़ देश की आज़ादी के लिए कार्य कर रहे थे.
देशवासियों के नाम सन्देश :
और स्थापना के बाद दोनों ने एक साथ मिलकर इटावा, मैनपुरी, आगरा और शाहजहाँपुर जिलों के युवकों को संगठन में जोड़ना शुरू कर दिया और देश की आज़ादी को लेकर नवयुवकों के अन्दर जागरूकता पैदा की. इसी के साथ जनवरी 1918 में रामप्रसाद जी ने "देशवासियों के नाम सन्देश" नामक पैम्फलेट को प्रकाशित किया और अपनी लिखी कविता "मैनपुरी की प्रतिज्ञा" के साथ जगह जगह इसका वितरण किया.
पुलिस से मुठभेड़ :
संगठन की मजबूती के लिए उन्होंने सन 1918 के दौरान 3 बार डकैती भी डाली. कांग्रेस के दिल्ली अधिवेसन में प्रतिबंधित साहित्य बेचने के आरोप में अंग्रेजी पुलिस द्वारा उन्हें गिरफ्तार करना चाहा लेकिन वो वहा से पुलिस से हुयी मुठभेड़ के दौरान चकमा देकर यमुना में छलांग लगा दी और तैरते हुए "आधुनिक ग्रेटर नॉएडा" के बीहड़ों में चले गए. और वही एक छोटे से गाँव रामपुर जागीर में अपना बसेरा बनाया और वही जंगलो में घुमते रहे.
और उसी दौरान अपना लेखन कार्य जारी रखा और उन्होंने अपना क्रान्तिकारी उपन्यास "बोल्शेविकों की करतूत" लिखा और "यौगिक साधन" का हिन्दी में अनुवाद भी किया. और जब अंग्रेजी हुकूमत द्वारा फरवरी 1920 में "मैनपुरी षड्यंत्र" में शामिल क्रांतिकारियों को रिहा कर दिया गया तब वे वापस शाहजहाँपुर वापस लौट आये.
लाला लाजपत राय से मुलाक़ात :
सितम्बर 1920 में आयोजित कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में शाहजहाँपुर काँग्रेस कमेटी के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में वो भी शामिल हुए और वही उनकी मुलाक़ात "पंजाब केशरी" लाला लाजपत राय जी से हुयी.
लाला जी ने उनकी लिखी पुस्तकों से काफी प्रभावित हुए और उनकी मुलाकात कलकत्ता के कुछ प्रकाशकों से करायी. और इन्ही प्रकाशकों में से एक उमादत्त शर्मा जी ने सन् 1922 में Ram Prasad Bismil जी की "कैथेराइन" नामक पुस्तक को छापी.
पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव :
सन 1921 में कांग्रेस द्वारा अहमदाबाद में अधिवेशन हुआ जिसमे उनकी मुलाकात मौलाना हसरत मोहानी से हुई जो कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में गिने जाते थे. मौलाना हसरत मोहानी द्वारा देश के हित में "पूर्ण स्वराज" का प्रस्ताव रखा गया तब इस प्रस्ताव के लिए गाँधी जी ने अपना विरोध जाहिर किया.
![]() |
Maulana Hasrat Mohan |
इस विरोध को लेकर कांग्रेसी स्वयंसेवकों में गुस्सा हद से ज्यादा आ गया और शाहजहाँपुर के कांग्रेसी स्वयंसेवकों के साथ रामप्रसाद जी और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ जी ने भी गान्धी जी के विरोध में काफी हंगामा मंचाया. जिसके फलस्वरूप गाँधी जी के ना चाहते हुए भी पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव को अपनी मंजूरी दे दी और प्रस्ताव को स्वीकार किया.
![]() |
चौरी चौरा काण्ड |
चौरी चौरा काण्ड :
महात्मा गांधी जी के लिए शुरू से ही उनके ह्रदय में प्यार था लेकिन जब ‘चौरी चौरा घटना’ हुयी और उसके बाद गाँधी जी ने "असहयोग आंदोलन" वापस ले लिया तब उन्हें इस बात की बहुत पीड़ा हुयी और अन्दर से व्याकुल हो गए. और सन 1922 के गया अधिवेशन के दौरान राम प्रसाद बिस्मिल व उनके साथियों के विरोध स्वरुप कांग्रेस में फिर दो विचारधारायें बन गयीं एक "उदारवादी" और दूसरी "विद्रोही".
![]() |
सन 1921 में असहयोग आंदोलन |
हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन का गठन :
सितम्बर 1923 में कांग्रेस द्वारा किये गए दिल्ली में विशेष कांग्रेस अधिवेशन के दौरान असन्तुष्ट नवयुवकों ने एक क्रन्तिकारी पार्टी बनाने का फैसला लिया.
उस दौरान सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल विदेश में थे और उन्होंने वही से पत्र द्वारा सलाह दी और कहा राम प्रसाद बिस्मिल को शचींद्रनाथ सान्याल व यदु गोपाल मुखर्जी के साथ मिलकर नयी पार्टी का संविधान तैयार करे. और इसी के साथ "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन" का गठन हुआ.
हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन की एक बैठक 3 अक्टूबर 1924 को कानपुर में की गयी जिसमें शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेश चन्द्र चटर्जी और Ram Prasad Bismil जी सहित कई और सदस्य शामिल हुए. संगठन को सुचार्रूप से चलाने के लिए पैसो की जरुरत पर वार्ता भी हुयी. और उसके बाद फण्ड एकत्र करने के लिए 25 दिसम्बर 1924 को बमरौली में डकैती डाली गयी.
![]() |
काकोरी काण्ड |
काकोरी काण्ड :
संगठन को और अधिक से अधिक धन की पूर्ति के लिए और ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति छेड़ने की खतरनाक मंशा को लेकर ब्रिटिश सरकार के खजाने को लूटने की योजना बनायीं गयी. और इसी के साथ रामप्रसाद बिस्मिल की अगुवाई में 9 अगस्त, 1925 में “काकोरी डक़ैती” की इस पूरी घटना को अंजाम दिया था. इस घटना को हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के केवल दस सदस्यों ने सफलता पूर्वक अंजाम देने के लिए अपना योगदान दिया था इनमे शामिल थे.
- रामप्रसाद बिस्मिल
- चन्द्रशेखर आज़ाद
- राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी
- ठाकुर रोशन सिंह
- सचिन्द्र बख्शी
- अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
- केशव चक्रवर्ती
- बनवारी लाल
- मुकुन्द लाल
- मन्मथ लाल गुप्त
इस घटना को सफल बनाने के लिए सभी ने अपने अपने नाम को बदल लिया था. “काकोरी डक़ैती” को लेकर अंग्रेजी हुकूमत पागल सी हो उठी पूरी तरह से बौखला सी गयी और निर्दोषों को पकड़कर जेलों में ठूँसना प्रारम्भ कर दिया. और 26 सितम्बर 1925 को बिस्मिल जी के साथ पूरे देश में 40 से भी अधिक लोगों को काकोरी डकैती मामले में गिरफ्तार कर लिया गया. और उन्हें जेल भेज दिया गया. लेकिन चन्द्रशेखर आज़ाद और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ पुलिस की पकड़ में नहीं आए.
आखिरी सफ़र :
अंग्रेजो द्वारा जेल में Ram Prasad Bismil को कठोर से कठोर यातनाएँ दी गईं. उनसे अन्य क्रांतिकारियों और उनकी गतिविधियों को जाने ने के लिए. लेकिन उन पर इन यातनाओं का कोई असर नहीं हुआ. उनके हौसले को तोड़ने की तमाम कोशिशे बेकार साबित हुयी.
सजा का ऐलान :
आखिरकार वो दिन भी आ गया जब रामप्रसाद बिस्मिल को अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को अदालत ने 19 दिसम्बर 1927 को फांसी की सजा सुना दी.
फाँसी से एक दिन पूर्व :
फाँसी के एक दिन पूर्व अंतिम मुलाकात के लिए गोरखपुर जेल में उनके पिता जी आये. और कुछ देर बाद माँ को देखा तो बिस्मिल जी की आँखों से आंसू छलक पड़े. माँ ने बेटे के आँखों में आंसू देख कर बेटे को कर्तव्य का बोध कराती हुयी ऊँचे स्वर में बोली और कहा ...
'मैं तो समझती थी कि मेरा बेटा वीर है, जिसका नाम सुनकर अंग्रेजी हुकमत भी कांपती है. मुझे नहीं पता था कि वह मौत से डरता है. यदि तुम्हें रोकर ही मरना था, तो व्यर्थ ही इस काम में क्यों आए.
माँ के शब्दों को सुनकर बिस्मिल जी ने कहा - यह आंसू तो माँ के प्रति स्नेह है, और माँ तुम अपने बेटे पर विश्वास करो तुम्हारा बेटा मौत से नहीं डरता. और इसी के बाद पिता जी से बात हुयी और सब वहा से चले गए.
शहादत का दिन :
19 दिसम्बर, 1927 की प्रात: हमेशा की तरह बिस्मिल जी चार बजे उठे, नित्यकर्म, स्नान आदि के बाद संध्या उपासना की और उसके बाद आखिरी ख़त अपनी माँ को लिखा. और फिर समय हो गया जेल के अधिकारी आ गए उन्हें ले जाने के लिए तब उनके चहरे पर मुस्कराहट थी और खड़े हुए साथ चल दिए "वन्दे मातरम" तथा "भारत माता की जय" का उद्घोष करते हुए. और साथ ही ऊँचे स्वरों में गाने लगे चलते चलते
मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे. जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे, तेरा ही ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे.
और खुद ही फांसी के तख्ते पर जाकर खड़े हो गए जब अंग्रेज अधिकारी ने उनसे आखिरी ख्वाहिश पूछी तो उन्होंने कहा कि
I Wish the down fall of British Empireअर्थात 'मैं ब्रिटिश साम्राज्य का नाश चाहता हूँ'
और इसके बाद Ram Prasad Bismil जी ने वैदिक मंत्रों का जाप किया.
ऊं विश्वानि देव सावितर्दुरितानि परासुव, यद् भद्रं तन्न आ सुव.
'और इसी के साथ वह फाँसी के फंदे को गले में डाल कर झूल गये, और सदा सदा के लिए ये वीर शहीद माँ भारती का लाल सो गया.
अंतिम संस्कार :
जिस समय रामप्रसाद बिस्मिल जी को फांसी दी जा रही थी तब जेल के बाहर उन्हें चाहने वालो की भीड़ लग गयी थी लोग इस वीर शहीद के आखिरी दर्शन को बेताब थे. और सुरक्षा को देखते हुए अंग्रेजों ने जेल के चारो तरफ पुलिस का कड़ा पहरा लगवा दिया था.
फांसी के बाद अंग्रेजो ने उनका शव जनता के हवाले कर दिया. शहीद बिस्मिल की अर्थी को सम्मान के साथ पुरे शहर में घुमाया गया हजारो की सख्या में लोग उनकी शवयात्रा में सम्मिलित हुए. उनका अंतिम संस्कार वैदिक मंत्रों के साथ राप्ती के तट पर किया गया.
दोस्तों अगर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी – Ram Prasad Bismil Biography के इस लेख को लिखने में मुझ से कोई त्रुटी हुयी हो तो छमा कीजियेगा और इसके सुधार के लिए हमारा सहयोग कीजियेगा. आशा करता हु कि आप सभी को यह लेख पसंद आया होगा. धन्यवाद आप सभी मित्रों का जो आपने अपना कीमती समय इस Wahh Blog को दिया.