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पढ़े सुरेन्द्र सिंह "झंझट" की कुछ लोकप्रिय रचना - आप का मंच

कलम के सिपाही सुरेन्द्र सिंह "झंझट" की कुछ लोक प्रिय रचना - आप का मंच  

दोस्तों आज "वाह आप का मंच" के इस खास आर्टिकल में आप का परिचय कराते हैं.  एक ऐसे कलम के सजग सिपाही से जो अपनी कविता, गीत, ग़ज़ल, और हास्य व्यग जैसी रचनाओं के माध्यम से, अलग अलग पत्र - पत्रिकाओं और आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित कार्यक्रमों के द्वारा हम सब के बीच अपनी रचनाओं की प्रस्तुति करते रहते हैं. 

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सुरेन्द्र सिंह "झंझट" का जन्म उत्तर प्रदेश में स्थित गोंडा जिले में 7 फरवरी 1961 में हुआ.  इनका बचपन से ही रुझान कविता, पत्रकारिता एवं स्वतंत्र लेखन की ओर रहा. अपनी शिक्षा में इन्होने सिविल इंजीनियरिंग के साथ साथ हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर  भी किया.  सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने अपने प्रदेश ही नहीं देश के कई कोनो में अपनी रचनाओ को प्रस्तुत किया  कवि सम्मेलनों के माध्यम से और साहित्यिक संस्थाओ द्वारा तथा कई कविमंचो पर सम्मानित हुए. उनकी लिखी एक बाल कविता संग्रह," बिल्ली का संन्यास " जो काफी लोकप्रिय हुयी.  साथ ही "मेरी मंजिल"  रचना धर्म" "शब्दों का हरिश्चन्द हूँ ,जयचंद नहीं हूँ" तथा और अन्य प्रकाशित रचनाओं का संग्रह जो लोगो के बीच आज भी लोकप्रिय हैं.

दोस्तों आईये आज पढ़ते हैं  सुरेन्द्र सिंह "झंझट" द्वारा लिखे कविता, गीत, ग़ज़ल, और हास्य व्यग जैसी कुछ  रचनाओं को. 

 "आप का मंच" - सुरेन्द्र सिंह "झंझट" की लोकप्रिय रचना 

  • साँप आस्तीन के, कंठ चूमने लगे

बाग़   सूखने   लगे. झाड़   झूमने   लगे.
साँप   आस्तीन  के , कंठ    चूमने    लगे.

क्रान्ति का घोष था, लोग   ऊँघने    लगे.
हम  तो  आदर्श को, सिर्फ   पूजने   लगे.

देखिये  तो !  मधुप- स्वर्ण   सूंघने   लगे.
उसने सच कह दिया , लोग    ढूँढने     लगे.

गाँव     के     पहरुए , गाँव     लूटने    लगे.
हम  स्वयं  का  पता , खुद   से  पूंछने  लगे.

स्वार्थ  के  सिन्धु  में , हंस      डूबने     लगे.
शूल   ने    छू   लिया , ज़ख्म   पूरने     लगे.  

                                 सुरेन्द्र सिंह "झंझट"

  • ये जरूरी  तो  नहीं

चन्द  लफ़्ज़ों  का  असर  हो.  ये जरूरी  तो  नहीं.
मेरे   नगमों   में   हुनर हो.  ये  जरूरी  तो  नहीं.

दिल से लिखता हूँ , ग़ज़ल है   कि  ग़ज़ल  जैसी है ,
मेरी  आहों  में  बहर  हो.  ये   जरूरी   तो   नहीं.

सिर्फ   साँसों  का  सफ़र है. ये  जिंदगी  अपनी ,
रोज़  घुट-घुट  के  गुज़र  हो.  ये  जरूरी  तो  नहीं.

उसके घर के बगल में. अपना घर है.. क्या कहना ,
अब  उसकी  मुझ पे नज़र हो.  ये  जरूरी तो नहीं.

दर्द  पी पी  के  ही  जीना  है. जिंदगी  यारों ,
उम्र  जलवों  में  बसर  हो.  ये जरूरी  तो  नहीं.

                                 सुरेन्द्र सिंह "झंझट"

  • यही जिन्दगी , यही है जीना
गम     खाना    औ    आँसू   पीना 
यही जिन्दगी , यही है जीना.  

पीर      पुरानी         घाव      पुराने,
नित्य   नयी     साँसों    से    सीना.

पीते       पीते        उम्र       गुजारी,
मगर   कहाँ   आ   सका    करीना ?

बिखरी   लट  , आँखों   में   दहशत ,
कहते    हैं    सब     उसे     हसीना.

सभी    देश     की      बातें    करते ,
अमर  शहीदों    का    हक   छीना.

श्वेतवसन      चेहरे       ने      देखा ,
दर्पण   को    आ    गया     पसीना.

नागफनी हो    गए     आचरण ,
पल-पल  मरना   पल-पल  जीना.

                                 सुरेन्द्र सिंह "झंझट"


  • कुछ न कहें तो अच्छा है

सब कुछ देखें  अधर  न खोलें,   कुछ न कहें तो अच्छा है.

उनमें  हम भी  शामिल हो लें,  कुछ  न कहें  तो अच्छा है.



परदे   के   पीछे   की   बातें ,  परदे    में    ही    रहने    दें ,
सच्चाई  का  राज  न  खोलें , कुछ  न  कहें  तो अच्छा है.

बाज़ारों   से   कई   मुखौटे ,  खरीद   लाने    के   दिन   हैं ,
असली चेहरा  कभी न खोलें, कुछ  न  कहें  तो अच्छा है.

महज़ स्वार्थ के  दलदल में, सम्बन्ध  धँसे ,   मजबूरी  है ,
कठपुतली   सा  नाचें  खेलें,  कुछ  न  कहें  तो  अच्छा है.

दाँतों  के  चंगुल  में   जिह्वा,  जैसे   विभीषण   लंका   में ,
रावण  के  हमराही  हो  लें,  कुछ  न  कहें   तो  अच्छा है.

पर   उपदेश  कुशल   बहुतेरे ,   बड़ा    पुराना    ढर्रा    है ,
पहले  अपना  ह्रदय  टटोलें, कुछ  न  कहें  तो  अच्छा है.

अधरों  पर  ताला  अनजाना  और   आँसुओं  पर   पहरे ,
भीतर-भीतर सब कुछ पी लें, कुछ न कहें  तो अच्छा है.
                                 सुरेन्द्र सिंह "झंझट"
  • मेरी कविता
महल का कब ? सड़क का साथ करती है मेरी कविता.
वख्त  से  भी  तो  दो- दो  हाथ  करती है  मेरी कविता.

नफरतों   से  झगड़ती  है  तो  अम्नोंचैन  की  खातिर ,
जहाँ  में  प्रेम  का   उन्माद   भरती  है   मेरी  कविता.

नहाकर  चांदनी   में   ये   कभी   लगती   परी   जैसी ,
कभी  आगों  की  दरिया से  गुजरती है  मेरी  कविता.

रंग  पर  रंग  का  मौसम   फुहारें    घन-घटाओं   की ,
फाल्गुन   में  भी सावन  बन  बरसती है  मेरी  कविता.

अंधेरो  की   सियासत  से     अकेली  जूझती  भी  है ,
जुगनुओं की तरह पल पल चमकती है मेरी कविता.

शहर की  तंग  गलियों में  घुटन की पीर  पी-पी  कर ,
खेत-खलिहान  के  रस्ते   विचरती है   मेरी  कविता.

थपेड़े     झेलती   है      काँपती      आँसू    बहाती  है '
रोज  पतझड़ के साये में   सँवरती  है   मेरी  कविता.
                                 सुरेन्द्र सिंह "झंझट"

  • एक पर्वत हिला के देखेंगे
स्वयं  को   आजमा   के   देखेंगे.
एक   पर्वत   हिला    के    देखेंगे.

सुना, जालिम है बड़ा  ताकतवर,
चलो   पंजा    लड़ा   के   देखेंगे.

चाँद तारों की सजी महफ़िल में,
एक   सूरज  उगा    के    देखेंगे.

आग  बस आग की  जरूरत है,
चाँदनी    में    नहा  के   देखेंगे.

हारकर बैठना आदत  में नहीं ,
जंग   आगे   बढ़ा   के    देखेंगे.

भग्न मंदिर के इस कंगूरे पर,
एक   दीपक  जला  के  देखेंगे.

रात मावस की बड़ी काली है ,
एक  जुगनू   उड़ा    के   देखेंगे.
                                 सुरेन्द्र सिंह "झंझट"


मैं अपनी तरफ से और "Wahh" हिंदी ब्लॉग की तरफ से  कलम के सजग सिपाही सुरेन्द्र सिंह "झंझट" जी को सह्रदय  धन्यवाद देता हु. जिन्होंने  "वाह हिंदी ब्लॉग" को अपना समझा और अपनी लोकप्रिय रचनाओं के माध्यम से इस ब्लॉग को सजाया. और इस ब्लॉग की गरिमा बढ़ाई.  


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